याद आती है बचपन की वो शैतानियां
उस वक़्त की वो नादानियां,
न थी ग़म की समझ,
न भारी थी जिंदगी में परेशानियां,
हर लम्हें में थी लाखों
खुशियां,
न होती थी फिक्र वक़्त की
बस होती थी खेलने की मस्तियां,
चिड़ियों की चहचहाहट से होता था रोज नया सवेरा,
फूलों की महक से खिल उठता था सबका चेहरा,
हर सुबह नई उमंग भर देती थी मन में,
मां के हाथों का वो खाना
जादू था जैसे उनके हाथों में,
उनकी ममता का एहसास हर पल,
हर वक़्त महसूस होता था,
मां के आंचल में ही थी जन्नत
मिलता था सुकून उनकी गोद में,
सर रख के फिर न होती थी कोई ख़बर हमें,
उस प्यार की छाए में काश बीत जाती सारी उम्र,
उसी तरह मां की गोद में ही...
न आते हम इस समझदारी की दलदल में
न भारी होती जिंदगी ग़म और परेशनियों से
न होती फिक्र किसी सपने के टूटने का
न होता दर्द किसी अपने के रूठने का
-निशा वर्मा
पत्रकार
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