बिहार की दुर्दशा तो उसी दिन से शुरू हो गई जब पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्वयं की महत्वाकांक्षा के लिए भारतीय जनता पार्टी के साथ चल रहे मजबूत गठबंधन को तोड़ने का फैसला किया. लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार को इसका परिणाम भी मिला. लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद नीतीश कुमार ने एक बार फिर नैतिक होने का नाटक खेला, और अपने पद से इस्तीफा दे दिया.
लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए अपने प्यादे के रूप में जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया. इस्तीफा के सहारे लोगों की नजर में नैतिकता का उंच्च मापदंड स्थापित कर अपने पद पर काबिज होने के खेल में नीतीश पहले से माहिर रहे हैं. लेकिन इस बर उसी खेल में अपने ही प्यादे (मांझी) के हाथों हारने के बाद भी पद हासिल करने में नीतीश ने जीत पाई है.
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ ही बिहार में विगत कुछ दिनों से चल रहा राजनीतिक नाटक का पटाक्षेप तो हो गया है लेकिन इस नाटक में लोकतंत्र की कई मर्यादाएं भी तोड़ी गई हैं या फिर तोड़ने के प्रयास किए गए हैं. लेकिन इतना तो तय है कि अगर इस नाटक में किसी भी रूप में किसी की हार हुई है तो वे नीतीश कुमार हैं. इस नाटक में नीतीश की नैतिकता से लेकर लोकतांत्रिक मूल्यों, उनकी तानाशाही या फिर गरीबों, दलितों और महादलितों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सब जगजाहिर हो गया है.
पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन को तोड़कर बिहार के विकास की धारा को ही अवरुद्ध नहीं किया बल्कि राज्य की जनता से मिले जनादेश के साथ भी कुठाराघात किया, क्योंकि भाजपा-जेडीयू गठबंधन को ही राज्य की जनता ने अप्रात्याशित प्रचंड जीत दिलाई थी.
इतनी बड़ी जीत शायद ही किसी पार्टी या गठबंधन को इससे पहले मिली हो। लेकिन नीतीश अपनी तानाशाही और पद लोलुपता के कारण भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर राज्य का बंटाधार कर दिया. गठबंधन तोड़ने की सजा भी जेडीयू को मिली, भाजपा को दो सीटों तक समेटने का दावा करने वाले नीतीश कुमार की पार्टी 22 से घटकर दो सीटों पर सीमट गई.
सत्ता के कारण नीतीश कुमार ने हमेशा से ही सुविधा की राजनीति करते रहे हैं. जिन लालू प्रसाद यादव को उन्होंने बिहार में कायम जंगल राज का नायक ठहराते रहे, सत्ता के लिए उन्हीं से हाथ मिला लिया. अपना बोलबाला कायम रखने और कठपुतली के सहारे राज्य की सत्ता चलाने के साथ ही राज्य में जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया.
जब तक उनके मुताबिक सबकुछ ठीक चलता रहा मांझी अच्छे बने रहे, लेकिन जैसे ही मुख्यमंत्री मांझी ने अपने मन का करना शुरू किया नीतीश ने उन्हें बेइज्जत करने में थोड़ी भी देर नहीं की। अब सत्ता हासिल करने के लिए बहाना तो चाहिए ही, इसलिए उन्होंने मांझी पर भाजपा के हाथ खेलने और उसका एजेंडा चलाने का आरोप मढ कर उन्हें पार्टी तक से निकाल दिया.
बिहार में चल रहे इस राजनीतिक घटनाक्रम में अगर किसी ने भी अभी तक नीतीश कुमार को करारी शिकस्त दी है तो वे हैं मांझी। मांझी ने नीतीश को दिखा दिया कि आज के इस दौर में उनकी सामंती सोच नहीं चलेगी, अगर लोकतंत्र है तो प्रक्रिया भी लोकतांत्रिक ही होगी, मुख्यमंत्री बनाने में भले ही उन्होंने अपनी मनमानी कर ली लेकिन हटाने में उनकी मनमानी नहीं चलेगी.
मांझी ने ये भी दिखा दिया कि सत्ता हासिल करने के लिए नीतीश कुमार किस प्रकार लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी धत्ता बता सकते हैं. मांझी ने संख्याबल अनुकूल नहीं होने के कारण राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया। इस प्रकार लोकतांत्रिक राजनीति में उनकी हार मानी जाएगी, लेकिन अगर लोकतांत्रिक राजनीति में नैतिकता की कोई जगह बची है (वैसे बची नहीं है), तो फिर इस खेल में सबसे बड़ी हार नीतीश कुमार की हुई है. भले ही नीतीश कुमार संख्याबल के सहारे अपना इच्छित पद हासिल करने के लिए जीत हासिल कर लिए हों.
-अवधेश कुमार मिश्र
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