निर्भय कुमार कर्ण |
घोर निराशा के क्षणों में लोग यह उक्ति दोहराते रहते हैं कि हर
अमावस्या के बाद पुर्णिमा सुनिश्चित है यानि कि हर काली रात प्रभात की उज्जवलता लेकर आती है, लेकिन बुजुर्ग के संदर्भ में यह उक्ति भी निरर्थक ही प्रतीत होता है. यहां अतिमहत्वपूर्ण सामाजिक सवाल उत्पन्न होता है कि बुजुर्गों को हाशिए पर धकेला जाना क्या उचित है? क्या मां-बाप अपने बच्चों की परवरिश इसलिए करता है ताकि वक्त आने पर बच्चा उन्हें अकेला छोड़ देगा?
बुजुर्गों का हाशिए पर जाना एक सामाजिक मुद्दा है और हमारा समाज काफी तेजी से बदल रहा है जिसमें आधुनिकता की आबोहवा ने समूची दुनिया को बदलकर रख दिया है. इस वातावरण ने संयुक्त परिवार को तितर-बितर कर एकल परिवार में तब्दील करने में तेजी से जुटा है.
एकल परिवार की दूषित हवा पश्चिमी देशों से बहती हुयी एशियाई घरों में तेजी से बहने लगी है जिससे अब गांव भी अछूता नहीं रह सका है. परिवार पर ‘हम दो-हमारे दो’ कथन हावी होने लगा है और कुल मिलाकर मात्र चार लोग यानि कि मां-बाप और उनके बच्चे एक छत के नीचे रहना चाहते हैं जिसमें दूसरे का दखलअंदाजी उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होता.
अधिकतर नारियां अपने पति व बच्चे के अलावा और किसी को परिवार में शामिल करने से सख्त परहेज करती है. ऐसी सोच के लोगों का मानना होता है कि अपनी जिंदगी में अपने पति के अलावा किसी और की दखलअंदाजी उन्हें पसंद नहीं और माता-पिता की थोड़ी-सी भी रोक-टोक रिश्तों में कड़वाहट को जन्म देती है परिणामस्वरुप परिवार बिखरने लगता है.
इस प्रकार माता-पिता व बहु-बेटे एक-दूसरे से अलग रहने की स्थिति में पहुंच जाते हैं. कई आंकड़े इस बात की ओर इंगित करता है कि आर्थिक प्रगति कर रहे विकासशील देशों में छोटे परिवार यानि कि एकल परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है.
आंकड़ों के नजरिए से बात करें तो 2013 में हुए संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या रिपोर्ट के मुताबिक, अभी विश्व में 60 साल की आयु पार कर चुके लोगों की संख्या 84.10 करोड़ है तथा इसमें से 66 फीसदी विकासशील देशों में है. वहीं भारत में इसकी संख्या लगभग 10 करोड़ है. जबकि भारत दुनियाभर में बुजुर्गों की आबादी वाला दूसरा बड़ा देश है.
एक अनुमान के मुताबिक, 2026 तक भारत में बुजुर्गों की संख्या 17 करोड़ और 2050 तक 32.4 करोड़ पहुंच जाएगी. यथार्थ यह कि बुजुर्गों की संख्या में दुनियाभर में इजाफा हो रहा है.
बुजुर्गों की संख्या के बढ़ने के साथ-साथ इनका असहनीय दर्द भी तेजी से बढ़ता जा रहा है. चाहे वे बुजुर्ग परिवार में रह रहे हों या फिर वृद्धाश्रम में या फिर कहीं किसी के साथ, हालात यही है कि बुजुर्ग अपनी शेष जिंदगी को घुट-घुटकर जीने को मजबूर हो रहे हैं. अधिकतर अपना दर्द अपने अंदर ही समेटे रखता है जिससे उसके परिवार की बदनामी न हो.
दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक विभाग के द्वारा किए गए हालिया सर्वे पर यकीन करें तो 92-33 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि बच्चे अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते और परेशान करते हैं. वैसे दुनियाभर के देशों में पाकिस्ताना ऐसा देश है जहां बुजुर्गों के लिए जीवन गुजारना सबसे दूभर होता है. पाकिस्तान बुजुर्गों के लिए तीसरा सबसे खराब देश है.
सर्वेक्षण के मुताबिक, 18-67 फीसदी लोग अपने माता-पिता को बोझ मानते हैं और उनका साथ देने से कतराते हैं. जबकि उम्र के इस पड़ाव पर माता-पिता को बच्चों की सख्त आश्यकता होती है. बुजुर्ग अपने बच्चों पर न केवल भावनात्मक बल्कि षारीरिक एवं आर्थिक रूप से भी आश्रित होते हैं.
लोगों की जेहन में यह सवाल बार-बार हिलोरें मार रहा होता है कि जिस माता-पिता, भाई-बहनों से शादी से पहले वह बेइंतहा मोहब्बत करता है, आखिर शादी के बाद उन्हीं से दूर क्यों भागने लगता है. इसका खुले रूप से जवाब देने से हर कोई हिचकता है.
हकीकत यही है कि शादी के बाद अधिकतर पुरुषों की जिंदगी में नारी का दखलअंदाजी शुरू हो जाता है. ये न करो, ये गलत है, इसे करो, उसे न करो, आदि-आदि आदेश ज्यादातर एक-दूसरों पर थोपा जाता रहता है.
परिवार में सदस्यों के अपने-अपने हितों को लेकर स्वार्थ एवं अहं की भावना में बहकर टकराव उत्पन्न होने लगता है. दूसरी ओर बच्चे व्यस्त दिनचर्या में परिवार को समय नहीं दे पाता और अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लगा रहता है.
परिवार में बुजुर्गों के प्रति लापरवाह होना अब कोई बड़ी बात नहीं रह गयी है. एनसीआरबी, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, दिल्ली सरकार की 2003 की रिपोर्ट इस बात को और पुख्ता करती है.
रिपोर्ट के मुताबिक, परिवार द्वारा बुजुर्गों का सही देखभाल नहीं करने के चलते 65 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाओं की मौत हो जाती है. वर्तमान हालत को देखते हुए केवल 5 प्रतिशत बुजुर्ग ही अपनी जिंदगी से संतुष्ट है और आगे की जिंदगी जीना चाहते हैं.
बुजुर्गों में खेती पर आश्रित बुजुर्गों की दशा सबसे ज्यादा खराब होती जा रही है क्यूंकि इनके आमदनी का जरिया केवल खेती होता है. शरीर और आंखे बुढ़ी हो जाने पर खेती करना तो दूर उठने-बैठने में भी काफी तकलीफ होती है.
ऐसा नहीं है कि बुजुर्गों को अपने लिए जीने का अधिकार नहीं है या उनके अधिकारों को दिलाने के लिए कोई कानून मौजूद नहीं है. कानून व सरकारी की कई सारी योजनाएं भी है लेकिन सामाजिक बदनामी और प्रताड़ना की वजह से नाममात्र बुजुर्ग ही कानूनी कदम उठा पाते हैं.
इनकी भलाई, हित व मनोरंजन के लिए कई सारे स्वयंसेवी संगठन अहम योगदान दे रहा है जो मानसिक तकलीफ को कम करने में नाकाफी है वहीं सरकार की ओर से वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन इनके लिए ऊंट के मुंह में जीरा के समान साबित हो रही है. लेकिन कुछ नहीं से कुछ तो अच्छा है, यही सोचकर बुजुर्ग अपनी शेष जिंदगी काटने में लगे हैं.
अब ईमानदारी से हमें इस बात का आत्मचिंतन-मनन करने की आवश्यकता है कि आखिर हमारी जमीं इतनी नीचे क्यों हो गयी कि जिस माता-पिता ने हमें जन्म दिया, पाला-पोसा, हम उन्हें ही हाशिए पर धकेल रहे हैं.
वक्त आ गया है कि हम अपनी सामाजिक सोच को उन्नत करें. किसी को यह अधिकार नहीं कि बुजुर्ग माता-पिता को उसके बेटे-बेटियों से अलग कर दें. उन्हें यह समझना होगा कि माता-पिता के साथ होने से जहां परिवार अत्यधिक कुशलता से किसी संकट से पार पा लेता है तो वहीं माता-पिता भी अपने आप को सुरक्षित और सहज महसूस करते हुए बच्चों के साथ हंसी-खुशी जीवन व्यतीत करने में अधिक सुकून महसूस करते हैं.
अब इस बात को सुनिश्चित करने की सख्त आवश्यकता है कि कोई भी माता-पिता हाशिए पर न जा सके और उन्हें खुशहाल जिंदगी जीने के लिए प्रेरित किया जा सके.
-निर्भय कुमार कर्ण
आरजेड-11ए, सांई बाबा एन्कलेव, गली संख्या-6,
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