निर्भय कुमार कर्ण |
भारत में हिंदी भाषा विगत वर्षों से हाशिये पर जाने लगा था, जिसे
नरेंद्र मोदी बहुत पहले भांप चुके थे और यही वजह है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही हिंदी भाषा पर जोर देते हुए कहा कि भारतीय भाषाओं और हिंदी को बढ़ावा दिया जाए. फलस्वरूप, गृह मंत्रालय ने 27 मई, 2014 को ही एक परिपत्र जारी कर सभी पीएसयू और केंद्रीय मंत्रालयों के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया पर भी हिंदी को अनिवार्य कर दिया.
केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग के लिए सभी मंत्रालयों और विभागों की हिंदी वेबसाइटों को अद्यतन किए जाने के लिए शत-प्रतिशत लक्ष्य निर्धारित किया गया. जिससे हिंदी में सूचनाओं का आदान-प्रदान करने को विशेष तौर पर तवज्जो दिया जाने लगा है. जिन-जिन देशो की यात्रा भारत के प्रधानमंत्री करते हैं वहां वह अधिक से अधिक हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं चाहे वह नेपाल की यात्रा हो या फिर हालिया जापान यात्रा.
यह माने जाने लगा है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में हिंदी भाषा शिखर पर होगा. आखिर ये उम्मीदें हो भी क्यों न, क्योंकि एक लंबे अंतराल के बाद किसी सरकार की ओर से हिंदी के पक्ष में एक शानदार और सकारात्मक कदम जो उठाया गया है.
गत वर्ष एक ऐसी सूचना आयी जिससे देशवासियों को गहरा झटका लगा. उन्हें यह यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिस हिंदी को वे अपना राष्ट्रीय भाषा मानते हैं, असल में वह राष्ट्रीय भाषा है ही नहीं केवल राजभाषा है यानि कि राजकाज की भाषा. संविधान के अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी भारत की ‘राजभाषा’ है. भारत के संविधान में भी राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख नहीं है.
अतीत के पन्ने को पलटा जाए तो हम पाते हैं कि जून, 1975 में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के तहत राजभाषा विभाग की स्थापना की गयी थी जिसके पास हिंदी में कामकाज को बढ़ावा देने और अनुवाद प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी है. बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में हिंदी राजभाषा के तौर पर है. ये प्रत्येक राज्य अपनी सह राजभाषा भी बना सकते हैं.
वैसे आंकड़ों की बात करें तो हिंदी देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है, इसे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भाषा माना जाता है. 1961 की जनगणना के समय हिंदी भाषा बोले जाने वाले लोगों की संख्या 26 करोड़ थी जो समय के साथ-साथ 2001 तक यही संख्या 42 करोड़ तक पहुंच गया.
वर्तमान में लगभग 180 देशों में 80 करोड़ लोगों के द्वारा इस भाषा का प्रयोग किया जाता है और विश्व में हिंदीभाषियों की संख्या एक अरब ग्यारह करोड़ तक पहुंच गया. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने के लिए हिंदी प्रयासरत है. मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड में इस भाषा के प्रति आदर और प्रेम बेहद संतोषजनक और सुखदायक है.
भारत सरकार विदेशों में हिंदी को जोर-शोर से विकसित करने के लिए निरतंर प्रयासरत है. एक जानकारी के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 1984-85 से 2012-2013 की अवधि में विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए भारत सरकार द्वारा सबसे कम 5,62,000 रूपए वर्ष 84-85 में और सर्वाधिक 68,54,800 रूपए वर्ष 2007-08 में खर्च किए गए. वर्ष 2012-13 में इस मद में अगस्त 2012 तक 50,00,000 रूपए खर्च किए गए थे.
ये आंकड़े दर्शाती है कि विदेशों में हिंदी भाषा के उत्थान के लिए खर्च की गयी राशि में काफी उतार-चढ़ाव है, जो इसके हाशिए पर जाने की भी निशानी है. लेकिन अब इस उम्मीद में तेजी आयी है कि इस राषि में वृद्धि कर केंद्र सरकार विदेशों में हिंदी को और मजबूती देगी.
हिंदी अपने बलबूते पर तकनीकी क्षेत्र में भी अपना दायरा आगे बढ़ाते हुए विश्व पटल पर अपने को स्थापित करने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रही है. भारत सहित कई देशों में इस भाषा के प्रति उत्साह को आसानी से देखा जा सकता है. पत्रकारिता, सिनेमा, धारावाहिक एवं अन्य में हिंदी भाषा का बोलबाला है. यह इतना प्रसिद्ध होती जा रही है कि अखबार से लेकर अंग्रेजी फिल्म भी हिंदी में अनुवादित होकर लोगों तक पहुंच रही है.
साथ ही इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समय के साथ-साथ हिंदी भाषा में बदलाव नहीं आया है. आज हिंदी मीडिया के सुर्खियों में हिंदी शब्दों की जगह अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी शब्दों का हिंदी शब्द नहीं है लेकिन बेवजह इन शब्दों का प्रचलन बढ़ा है, ऐसे प्रचलन से हिंदी को नुकसान पहुंच रहा है.
शुद्ध हिंदी भाषा विलुप्त होती जा रही है. इसे पटरी पर लाने की आवश्यकता है. इतना सबके बावजूद हिंदी भाषाओं के अखबार, पत्रिका, टीवी चैनल को पसंद करने वालों की संख्या काफी अधिक है. हालात यह है कि अखिल भारतीय भाषाओं के हर नौ पाठकों की तुलना में अखबारों का एक अंग्रेजी पाठक मात्र होता है.
ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी युग में हिंदी का वाकई अब अच्छा दिन आ चुका है. लेकिन अभी भी हिंदी भाषा केे सुविकास के लिए योजनाएं और रणनीति बनाने की आवश्यकता है. समय आ चुका है कि राजभाषा नीति में बदलाव करते हुए इसमें प्रोत्साहन के साथ-साथ दंड का प्रावधान किया जाए, जिससे हिंदी कभी भी हाशिए पर न जा सके और निरंतर उन्नति करता रहे.
-निर्भय कुमार कर्ण
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