वो भी सितंबर का महीना था. डीयू के कॉलेजों में हर बार की तरह छात्रसंघ चुनाव की तैयारी जोरों-शोरों पर चल रही थी. मैं भी कॉलेज छात्रसंघ चुनाव में सक्रिय था.
इस दौरान कॉलेज प्रशासन की तरफ से चुनाव और केंडिडेटों को लेकर धांधली करने की ख़बरें आनी लगी. हालांकि ये धांधलियां नई नहीं थी. कॉलेज पहले भी चुनावों में अपनी मनमानी चलाता आया था. लेकिन इस बार चुप बैठना ठीक नहीं समझा.
जर्नलिज्म का स्टूडेंट होने से दिल में जज्बा और ज़ोश उमड़ा तो सोशल वर्क
के दोस्त कृष्ण गोपाल सिहं ने क़ानूनी रास्ता दिखाया. दोनों ने कॉलेज प्रशासन के ख़िलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया.
इसके बाद न्याय की मूर्ति के दरवाजे पर उस दिन जो खटका, उसकी खटखटाहट आज भी मेरे ज़ेहन में खटक रही है.
उस दिन को मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं और शायद ही कभी भूल पाऊं. उस पल को याद करते हुए दिमाग सन्न हो जाता है... शरीर कांपने लगता है... रुह सिहरने लगती है... सांसे कुछ पल के लिए थम जाती है और एकाएक आंखों के सामने ज़िंदगी का सबसे ख़ौफनाक मंजर तैरने लगता है.
वो खौफनाक दिन था बुधवार का...और तारीख़ थी 7 सितंबर 2011. ये वही दिन था जिस दिन वकील साहब को कॉलेज के खिलाफ़ कोर्ट में केस रजिस्टर्ड करना था. वकील साहब की तरफ से किसी भी हालत में हमें सुबह साढ़े नौ बजे तक कोर्ट पहुंचने का आर्डर था. गोपाल और मेरे सिर पर कॉलेजकी मनमानी के ख़िलाफ कारवाई कराने का भूत सवार था.
हम दोनों 7 सितंबर की सुबह आईटीओ के चौराहे पर मिलें. उस समय घड़ी में लगभग सवा नौ बजे होंगे. मैंनें गोपाल को जल्दी से बाईक पर बैठाया और बाईक हाईकोर्ट की तरफ दौड़ा दी. सुबह का समय था. सड़कों पर ट्रैफिक कम था. रोड खुला था. ठीक साढ़े नौ बजे हम दिल्ली हाईकोर्ट के गेट नं. 5 के बाहर थे.
उस वक्त हाईकोर्ट के बाहर वाली रोड पर गाड़ियां कम ही खड़ी थी. गाड़ियों की आवाजाही भी शून्य ही थी. रोड पर बैरीकेटस अव्यवस्थित तरीके से खड़े थे. सफाई कर्मचारी सड़क पर झाड़ू लगा रहे थे.
मैंने बाईक पर सवार हुए गेट नं.-5 से कोर्ट परिसर में एंट्री करनी चाही, लेकिन सुरक्षा गार्ड ने मुझे रोकते हुए कहा “हांजी...भाई साहब कहां जा रहे हो”...”कोर्ट में जाना हैं” मैंनें हेलमेट का शीशा ऊपर करते हुए उसको रिप्लाई दिया. इतने में उसका एक और साथी वहां आकर बोला...”अंदर सिर्फ स्टाफ की गाड़ियों को जाने की परमिशन है”,.... ”तो फिर बाईक कहां खड़ी करें...?”
गोपाल ने बाईक से उतरते हुए पूछा,...फिर उन दोनों ने एक साथ गेट नं. 7 की तरफ इशारा करते हुए रिप्लाई दिया.. ”उधर,..दूसरे गेट के सामने पार्किंग है..वहां..”
5 मिनट की बातचीत में मेरी आंखों ने उन दोनों के बारे में काफी कुछ कैप्चर कर लिया था. सुबह का समय था...दोनों का मूड बिल्कुल फ्रेश था...चेहरा एकदम तरोताज़ा था...बाल उनके गीले थे...बालों में हल्का ऑयल लगा था...सूरज की किरणें उनके सिर पर पड़ते हुए मेरी आंखों में रिफलेक्शन मार रही थी.
हमनें उन दोनों की सलाह पर अमल करते हुए गेट नं.-7 के ठीक सामने बनी पार्किंग में बाईक पार्क कर दी और गेट नं.-7 से कोर्ट परिसर में एंट्री ली. एंट्री के समय हम दोनों की तलाशी ली गई, लेकिन ये तलाशी हमें सिर्फ खानापूर्ति ही महसूस हुई.
हम दोनों तेजी के साथ वकील साहब के चैंबर की तरफ बढ़े. उनके हिसाब से हम दोनों 10 मिनट लेट थे लेकिन वो केस रजिस्टर्ड करने के लिये फाइल बनाकर तैयार थे. हम तीनों बातचीत करते हुए कैंटीन तक आए. वकील साहब ने हम दोनों को कैंटीन में बैठाया और 5 मिनट में वापस आने की बात कहकर चले गए.
वकील साहब को गए पूरे 20 मिनट हो गए. वहां बैठे-बैठे मेरे जेह़न में जज साहब द्वारा कॉलेज प्रशासन को लताड़ने के दृश्य उकरने लगे. जबकि गोपाल बोर हो रहा था. उसने मुंह से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उसके चेहरे पर बोरियत साफ झलक रही थी. थोड़ी देर बाद गोपाल पानी पीने चला गया.
कैंटीन की टेबल पर मैं अकेला बैठा रहा. कुछ देर बाद एक अधेड़ उम्र का सांवला, मोटा आदमी मेरे सामने आकर बैठ गया. उसके हाथ में चाय का गिलास था. उसने बैठते हुए आशा भरी नज़रों से मुझसे पूछा..”जज साहब कितने बजे आते है...?”
उसकी आवाज में सुचकुचाहट थी. उसके पूछने के अंदाज से महसूस हुआ कि वो किसी गांव-देहात का इंसान है. मैंनें भी उसको उसके सवाल की तरह सीधा-सीधा जवाब दिया “आने ही वाले होंगें”.
हम दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि अचानक कानों में एक ज़ोरदार धमाके की गूंज सुनाई दी. आवाज इतनी शक्तिशाली थी कि पैरों ने ज़मीन के अंदर की थर्राहट को महसूस किया. टेबल पर रखा चाय का गिलास उड़ल गया. कैंटीन की टीन शेड लटक गई. कैंटीन में बैठे सभी लोग भौचक्के होकर एकाएक खड़े हो गए. सभी के चेहरे पर अजीब सा डर था. मैं भी खड़ा हो गया, लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.
जेब से मोबाईल निकाला...मोबाईल में ठीक 10 बजकर 10 मिनट हो रहे थे. सब घबराये हुए थे लेकिन दूसरी टेबल पर पास में बैठा आदमी, ज्यूं का त्यूं बैठा रहा. वो मेरी तरफ देखकर थोड़ा मुस्कुराया और बोला“ बैठ जाओं..., किसी ट्रक का टायर फटा होगा...” उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान बरकरार थी. उसके चेहरे के किसी भी कोनें में डर की कोई सिकन नहीं थी. लेकिन मुझे उसकी बात बिल्कुल भी हजम नहीं हुई और मैं उसको बिना कुछ रिप्लाई दिये वहां से चल दिया.
दिमाग में सवाल-जबाव का सिलसिला शुरु हो गया. हाईकोर्ट जैसे संवेदनशील एरिया में ट्रक कैसे आ सकता है..? अगर आएगा भी तो इतनी सुबह कैसे आ सकता है..? अभी तो नो-एंट्री का समय है.., अगर ट्रक का टायर फटा है तो टायर फटने की आवाज इतने जोर की नहीं हो सकती..कहां से आया ये ट्रक इतनी सुबह..?
ये सारे सवाल बैक-टू-बैक मेरे दिमाग में चल रहे थे और दिल में अजीब-सी घबराहट थी. मैं हड़बड़ाकर गोपाल को ढ़ूंढने उधर भागा, जिधर से धमाके की आवाज कानों में पड़ी थी.
कैंटीन से 30-40 कदम दूर ही पहुंचा था कि गेट नं.5 के बाहर भारी भीड़ दिखाई दी. भीड़ में आदमी खड़े कम, लेटे और बैठे ज्यादा दिख रहे थे. मैं स्पॉट के और पास पहुंचा. दिमाग में आया कि ये वहीं गेट है जहां से एंट्री करने के लिए सिक्योरिटी गार्ड ने अभी थोड़ी देर पहले मना कर दिया था.
वहां का खौफनाक मंजर देखकर में अंदर से पूरी तरह हिल गया. वहां गेट के पास, अंदर और बाहर की तरफ खून ही खून था. शवों के बीच ज़िंदा लोग कराह- चिल्ला रहे थे. उनके शरीर के अंग कुछ फीट की दूरी पर पड़े थे. मांस के लोथड़ों से खून रिस रहा था. काले लिबास के अलावा कुछ सिक्योरिटी गार्ड भी ज़मीन पर पड़े नज़र आ रहे थे.
ज़मीन का फर्श खून और काले कोट से पटा पड़ा था. काले लिबास के अंदर की सफेट कमीज खून से लाल थी. एंट्री रुम की छत को छांव देते पेड़ पर जब नजर गई तो नजरें वहीं टंगी रह गई. लोगों के धड़ ज़मीन पर थे लेकिन उनके हाथ-पैर छत और पेड़ पर झूल रहे थे.
इसी खौफ़नाक मंजर के बीच मेरी निगाहें गोपाल को बराबर ढ़ूढ रही थी. मैं घायलों के जत्थे में गोपाल को ढ़ूंढने लगा लेकिन वो वहां नहीं मिला. मेरे मन में घबराहट और बढ़ गई. चेहरे पर खौफ तैरने लगा. मैंनें जेब से फोन निकाला...लेकिन सिग्नल गायब थे. शायद जैमर एक्टिवेट कर दिया गया था.
उधर, कोर्ट परिसर में बनी छोटी-सी डिस्पेंसरी में घायलों को प्राथमिक उपचार के लिए तेजी से ले जाया जाने लगा. मैं गोपाल को ढूंढने वहां भी गया, लेकिन वहां ज़ज और वकीलों की सीनियर्टी-जूनियर्टी के हिसाब से घायलों को प्रथामिकता दी जा रही थी. चारों तरफ लोग भाग रहे थे.
मेरा दिमाग सन्न हो गया था. समझ में कुछ नहीं आ रहा था. गोपाल भी गायब था. थोड़ी देर बाद पुलिस और एम्बुलेंस के सायरन की आवाज कोर्ट परिसर के अंदर-बाहर चिल्लाने लगी. मेरी निगाहें गोपाल को तलाशती रही.
काफी देर के बाद गोपाल मुझे क्षत-विक्षत शवों और घायलो को एम्बुलेंस में बैठाता नजर आया. दूर से देखा तो उसका हरा कुर्ता खून से लाल था. मैं दौड़कर उसके पास गया. उससे कुर्ते पर लगे खून के बारे में पूछा. उसने अपने ठीक होने का हाथ से इशारा किया. लेकिन मैं फिर भी चिंतित था.
मैंनें फिर दोबारा पूछा. जल्दबाजी में उसके मुंह से सिर्फ इतना ही सुन पाया..”किसी के शरीर का पार्ट आकर गिर गया था...मैं ठीक हूं..” फिर मैं भी उसके साथ घायलों को एम्बुलेंस में बिठाने में मदद करने लगा. थोड़ी देर बाद दोस्तों और घरवालों के कॉल आने शुरु हो गए. सभी को दोनों के सही-सलामत होने की ख़बर दी.
बहरहाल इस हादसे को आज पूरे 2 साल हो गए लेकिन कई सवाल ऐसे है जिनका जवाब आजतक तलाश रहा हूं. कौन था कैंटीन में बैठा वो आदमी, जो उस भयानक मंजर में भी मुस्कुरा रहा था..? आखिर क्या था उसकी मीठी मुस्कान के पीछे का राज़..?
इतनी संवेदनशील जगह पर सिक्योरिटी गार्ड ने तलाशी के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति करके कोर्ट में हमें एंट्री क्यों दे दी...? कहां और किस हाल में होगें वो सुऱक्षाकर्मी, जिन्होंने गेट नं.-5 पर हमें एंट्री देने से मना कर दिया...? वो ख़ुदा के फरिश्तें इस वक्त दुनिया में होंगें भी या नहीं..? ये कुछ ऐसे सवाल है जिनके जबाव शायद ही मुझे कभी मिल पाएं।
-रहीसुद्दीन ‘रिहान’
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