माधवी श्री |
इसमें शिरकत करने मीडिया के बड़े नाम मौजूद थे. वरिष्ठ संपादक श्री शम्भुनाथ शुक्ल, तहलका हिंदी के एग्जीक्यूटिव संपादक श्री संजय दुबे और एबीपी न्यूज़ के एंकर श्री सुनील झा तथा पापूलेशन फर्स्ट संस्था की निदेशिका सुश्री डॉ शारदा और उनके सहयोगी डॉ अरविन्द भी थे.
इस अवसर पर वरिष्ठ संपादक श्री शम्भुनाथ शुक्ल ने कहा कि मुझे
लगता है कि मीडिया की जेंडर एवेयरनेस में भूमिका नकारात्मक है. महिलाओं के संदर्भ में जिस तरह के विज्ञापन और खबरें छापी या प्रसारित की जाती हैं उनसे महिलाओं का भला होगा? आजादी के बाद से अभी तक हिंदी मीडिया में उच्च पदों पर महिलाएं पहुंच ही नहीं पाई हैं सिवाय एक मृणाल पांडे को छोड़कर. लेकिन उनकी अपनी पृष्ठभूमि का अहम रोल था. हालांकि उन्होंने ही हिंदुस्तान अखबार की छवि को तोड़ा और उसे लाटरी के मायाजाल से निकालकर मुख्य धारा का अखबार बनाया.
उन्होंने कहा कि 1857 की जब डेढ़ सौवीं जयंती मनाई जा रही थी तब हिंदुस्तान ने पूरे साल हर सप्ताह एक पेज निकाला जो किसी भी अखबार के लिए गर्व की बात तो है ही साथ में यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. बाकी जगह तो आलम यह है कि महिलाओं को चीफ रिपोर्टर तक के लायक नहीं समझा जाता. जब मैं अमर उजाला के कानपुर संस्करण में स्थानीय संपादक था तो एक महिला चीफ रिपोर्टर को रखा था लेकिन उसके लिए मुझे निरंतर अपने संवाददाताओं की पुरुष अहमकता से जूझना पड़ा था.
श्री शुक्ल ने कहा कि यह अलग बात है कि जेसिका लाल मर्डर केस और गैंगरेप की शिकार गुडिय़ा के मामले को टाइम्स ऑफ इंडिया ने मुद्दा बना दिया था. पर सिर्फ दिल्ली की घटनाओं को हाईलाइट कर तो हम महिलाओं के अधिकारों के प्रति सचेत नहीं हो जाएंगे? शायद बहुतों को पता न हो कि 1928 में चांद पत्रिका के फांसी अंक की संपादक महादेवी वर्मा थीं. और यह एक ऐतिहासिक अंक था. एक तरफ तो आज से 85 साल पहले महिलाएं मीडिया की मुख्यधारा में थीं पर आज वे बस पेज थ्री टाइप खबरें कवर करने के लिए रखी जाती हैं.
श्री शम्भुनाथ शुक्ला जी ने आगे कहा कि १९८२ में जब 'फूलन देवी कांड' हुआ तब हमलोगों ने जिस तरह से उसको सतही तौर पर कवर किया वह फूलन देवी के साथ न्यायोचित नहीं था. वही जब एक फ्रेंच लेखक ने इस विषय की जाँच पड़ताल की तब लोगो को पता चला की फूलन देवी के पीछे 'फूलन देवी' बनाने के सही कारण क्या थे. उन्होंने उस समय के पत्रकारों की संवेदनहीनता की और इंगित किया.
एबीपी न्यूज़ के एंकर श्री सुनील झा ने कहा कि जब तक हम घर में परिवर्तन नहीं लायेगे तब तक बदलाव असम्भव है. घर से बात बाहर निकल कर समाज तक जाती है फिर वहां से राष्ट्र तक फैलती है. जब घर में महिलाओ को बराबरी का दर्जा मिलेगा तो समाज में अपने आप मिलने लगेगा.
सुनील ने कहा पुरुष जानता है की उसकी महिला सहकर्मी आज नहीं तो कल शादी या बच्चे के मुद्दे पर छुट्टी लेगी तब वो एबीपी न्यूज़ के एंकर श्री सुनील झा कैरियर में उससे आगे निकल जायेगा. कितनी महिलाओ को अपना कैरियर बीच में छोड़ना पड़ जाता है या यूँ कहे घरवालों के दबाव में छोड़ना पड़ जाता है. महिलाओ के लिए 'लेवल फील्ड' नहीं होता अपने पुरुष सहकर्मियों से मुकाबला करने के लिए.
उन्होंने कहा कि 40 के बाद कितनी महिलाएं उच्च पदों पर पहुंच पाती हैं पुरुषों के मुकाबले यह सोचने की जरूरत है. तमाम महिलाओं के रास्ते आगे जाकर खुरदुरे हो जाते हैं.
सुनील ने कहा कि 90 के दशक में महिलाओ के अधिकारों से सम्बंधित खबरें छपा करती थी. आजकल सिर्फ फैशन या पेज थ्री टाइप की खबरें छपा करती हैं. दिल्ली रेप केस या दुर्गाशक्ति केस की खबरें इस लिए छपती है क्यों की ये बिकाऊ खबरें हैं. जमीन से जुडी खबरें आज कल कम छपती हैं.
तहलका हिंदी के एग्जीक्यूटिव संपादक श्री संजय दुबे ने कहा कि मीडिया में ही महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं है तो हम बाहर वालों की क्या बात करे. आज भी कई मीडिया संसथान है जो अपने महिला कर्मचारी को 'मेटरनिटी लीव' नहीं देते. क्या ये अन्याय नहीं है? आज माडर्न महिला की इमेज को कपड़ों और खुले फैशन के साथ जोड़ दिया गया है. वैचारिक स्वतंत्रता को उतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया जा रहा है.
संजय ने कहा कि मेरी नज़रों में मेरी माँ एक मॉडर्न महिला थी जिन्होंने ने मेरे अन्दर मजबूती वाले संस्कार डाले. संजय ने कहा कि आज विद्या बालन उनकी नज़रो में एक मॉडर्न महिला है. विद्या बालन ने उन तमाम मिथकों को तोड़ा जो एक सफल हेरोइन के लिए गढ़ा गया था कि उसकी उम्र ३० से ऊपर न हो, वो किसी हीरो की माँ न बनी हो किसी फिल्म मे, उसका साइज़ जीरो हो. आज महिलाओ को एक तस्वीर बना कर पेश किया जा रहा है.
इस संगोष्ठी में सभी वरिष्ठ पुरुष पत्रकारों ने समस्या की सही तरीके से विवेचना की और सभी एक मुद्दे पर सहमत हुए कि मीडिया में महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं प्राप्त है.
लाडली मीडिया अवार्ड के बारे बताते हुए पापूलेशन फर्स्ट संस्था की निदेशिका सुश्री डॉ शारदा ने कहा कि संस्था चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा पत्रकार इस अवार्ड के लिए अपनी प्रविष्टिया भेजे. 15 सितम्बर 2013 तक प्रविष्टियां भेजी जा सकती है. जनवरी 2012 से 30 जून 2013 के बीच लिखी/छपी/प्रसारित स्टोरी अवार्ड के लिए भेजी जा सकती है. ये अवार्ड मीडिया में जेंडर से जुड़ी संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए है.
इस अवसर पर ट्रिओस से महानिदेशक अरविं ने महिलाओं से जुडी महत्वपूर्ण आकड़ें प्रस्तुत किये. अरविन्द ने कहा ५ दिन काम करके हम पुरुषों को छुट्टी मिलजाती है पर ७ दिन काम करने वाली महिलाओं के बारे में हम यही कहते है कि वो काम नहीं करती.
-माधवी श्री
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